बुन्देलखंड का हर निवासी बुन्देला है


बुन्देलखंड में महाराजा छत्रसाल की शासन सत्ता इस प्रकार थी :–


इस जमना उत नर्मदा,इस चम्बल उत टौंस ।

छत्रसाल सौं लरन की,रही न काहू हौंस ।।







शुक्रवार, 9 मार्च 2012

फाल्‍गुन शुक्‍ल अष्‍टमी से पूर्णिमा तक आठ दिन होलिकाष्‍टक

बुंदेलखंड में रंगो का पर्व होली मनाने की परंपरा बहुत पुरानी है। बुंदेलखंड के फाग गीत भी बहुत लोकप्रिय है। एक समय था जब बुंदेलखंड की रियासतों में राजे-रजावड़े राज करते थे। उस समय होलिकोत्सव और वसंतोत्सव को राजसी ठाट-बाट के साथ मनाया जाता था। अब रियासतें रहीं रजवाड़े लेकिन बदले हुए रूप में होलिकोत्सव आज भी मनाया जाता है। होली का नाम सुनते ही बरबस बुंदेली फागों का स्मरण हो आता है लेकिन फागों के बारे में यह भ्रांति है कि ये सिर्फ होली या रंगोत्सव के लिए हैं। वास्तव में बुंदेली फाग गीत बुंदेलखंड के लो गीतों की एक विधा है और इसका दायरा बहुत व्यापक है। होली के साथ ही बुंदेली फाग कमोबेश हर अवसर पर गाई जाती हैं। इस पर विस्तार से बाद में चर्चा करेंगे लेकिन पहले बुंदेलखंड की होली पर एक नजर डालें।बुंदेलखंड के होलिकोत्सव को समझने के लिए गोस्वामी तुलसीदास के गीतावली में वर्णित होलिकोत्सव को देखना होगा: खेलत बसंत राजाधिराज। देखत नभ कौतुक सुर समाज।
सोहे सखा अनुज रघुनाथ साथ। झोलिन् अबीर पिचकारी हाथ।
बाजहिं मृदंग, डफ ताल बेनु। छिरके सुगंध भरे मलय रेनुं।
लिए
छरी बेंत सोंधे विभाग। चांचहि, झूमक कहें सरस राग।

नूपुर किंकिनि धुनिं अति सोहाइ।
ललना-गन जेहि तेहि धरइ धाइ।
लांचन
आजहु फागुआ मनाइ।
छांड़हि नचाइ, हा-हा कराइ।
चढ़े
खरनि विदूसक स्वांग साजि।
करें
कुट निपट गई लाज भाजि।
नर
-नारि परस्पर गारि देत।
सुनि
हंसत राम भइन समेत।
बरसत
प्रसून वर-विवुध वृंद जय-जय दिनकर कुमुकचंद।
ब्रह्मादि
प्रसंसत अवध-वास।
गावत
कल कीरत तुलसिदास।

होली की तैयारी- डांड़ दंड की जगह अब ऐसे लट्ठे गाड़े जाते हैं और लकड़ी इकट्ठी की जाती है। फाल्गुन शुक् अष्टमी से पूर्णिमा तक आठ दिन होलिकाष्टक के रूप में मशहूर हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी इन दिनों घर-घर मंजीर की आकृति के गोबर के बल्ले बनाए जाते हैं। एक पताकायुक् होली का डांड़ (दंड) गाड़ दिया जाता है और उसके चारों ओर झाड़-झखाड़ कंडे आदि इकट्ठे किए जाते हैं। जो लोग इस काम में भाग लेते हैं उन्हें हुरयारे कहा जाता है। होली मस्ती और उल्लास का त्यौहार है। हुरियारे कभी कभी लोगों की चारपाई आदि जैसे सामान भी होली के हवाले कर देते हैं, जिसे लेकर कभी कभी लड़ाई झगड़े भी हो जाते हैं। बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि होली में वास्तव में खेतों के वे झाड़ झंखाड़ ही डाले जाने चाहिए जो खेतों की फसल कटने के बाद अनुपयुक् बच जाते हैं और आगे रही ग्रीष् ऋतु की तेज हवाओं के साथ उड़कर किसानों के मार्ग को और दुर्गुम बनाते हैं। आठ दिन तक होली जोड़ने की परंपरा भी यही है कि झाड़ झंखाड़ खोज-खोज कर इकट्ठे किए जाएं। समय के साथ परंपराओं में भी बदलाव होते हैं और होली इसका अपवाद नहीं है। ये पुरानी परंपराएं अब गांवों में भी बहुत कम दिखाई देती हैं। शहरों में तो खैर इनका प्रचलन बंद हुए बरसों हो गए। शहरों में तो अब एक-दो दिन के अंदर होली का इंतजाम किया जाता है। लकड़ी, कंडे, झाड़-झंखाड़ खोजने की परंपरा नहीं रही। अब तो उत्साही नौजवान चंदा इकट्ठा करते हैं और सब कुछ उसी से कर लिया जाता है। पुराने समय में बुजुर्ग बताते हैं कि पुरोहितों द्वारा बताए गए समय में फाग मंडलियां फाग गीत गाते हुए निकलतीं तो लगता मानो ये गीत इस उत्सव के मंगलाचरण हैं:

कोऊ ऐसो जग में होए महादेव शिव दानी।
चंदन
, चाउर बेल की पाती, अज्झा-धतूरे के फूल।
चढ़ाये
जल पानी। कोऊ ऐसौ

इत बहै गंगा उत बहै जमुना, प्रागराज में तिरवेनी।
भागीरथ
गंगा लै आये, तरन लगो संसार- जटन में उरझानी।
कोऊ
ऐसौइन्हीं के साथ लोगों का समूह भी पूजा की थालियां लेकर जाता। नियत समय पर घी, गुड़, बताशे, हरिद्रा, अक्षत आदि से प्रहलाद की बुआ की पूजा कर होली जलाई जाती। इसके बाद लोग होली की अग्नि लाकर अपने अपने घरों में बल्लों की होली जलाते। होली के डांड़ (दंड) के पतन, उस पर लगी पताका और होली के धुंए से वायु परीक्षा की जाती थी। इससे राजा और प्रजा के भविष् का अनुमान लगाया जाता था। ज्यातिष शास्त्र के अनुसार इस समय पूर्व, उत्तर और पश्चिम की वायु शुभ और दक्षिण की वायु अशुभ मानी जाती थी। देखें: पूर्वे वायु होलिकाया: प्रजा: भूपालयो: सुखम्। पलायनं दर्भिक्षं दक्षिणे जायते ध्रुवम्।। पश्चिमे तृण सम्पत्ति: उत्तरे धन्-संभव: यदि खे शिखा वृद्धि, दुर्गम् राग्योSपि संक्षयेत।। होलिका दहन के अगले दिन रंग-गुलाल खेलना और ढपला बजाकर घूमती फगवारों या हुरयारों की टोलियों की धमाचौकड़ी तो आज भी देखी जा सकती है। बुंदेलखंड में कुछ स्थानों पर पुराने समय में एक अन् प्रथा भी प्रचलित थी। इसे गुड़ की पारी (बड़ी डली) लूटना कहा जाता था। बाद में यह प्राय: समाप् हो गई। एक ऊंचे लट्ठे को मैदान में गाड़ कर उसके ऊपर एक पारी बांध दी जाती थी। पुरुष उस पारी को उतारने का प्रयास करता था। जैसे ही पुरुष उस लट्ठे पर चढ़ते तो वहां मौजूद स्त्रियां उस पर लाठियों से प्रहार कर उसे रोकने का प्रयास करतीं। इसके बावजूद पुरुष चोटों को सहते हुए तेजी से ऊपर चढ़ते और लाठी के प्रहार की सीमा से बाहर होते ही पारी लेकर उतर आते। बाद में विजयी पुरुष उस पारी को स्त्रियों में ही बांट देते थे। बुंदेलखंड में होलिका दहन के दूसरे दिन पूर्वाह्न में धुलेंडी या कीच गिलाव और अपराह्न में रंगों की फाग होती थी। गांवों में आज भी द्वितीया और पंचमी के दिन भी रंगों से फाग खेली जाती है। शहरों में तो अब होली से ज्यादा पंचमी पर रंग खेलने का प्रचलन है। हालांकि इसमें अब पहले सा उत्साह नहीं रहा। अब तो खैर गांवों में भी वह सब कुछ पहंचने लगा है जो शहरों में मिलता है। लेकिन एक समय था जब गांवों में टेसू के फूलों का रंग ही होली खेलने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। पुराने समय में गांव-गांव में फगुवारों की टोलियां द्वार-द्वार जाती थीं। इनमें से एक गायकों की टोली होती थी और दूसरी फाग खेलने वालों की। गीतावली के होलिकोत्सव में लोचन आजहिं फगवा मनाइ की जो चर्चा की गई है वह प्रथा आज भी मौजूद है। बुंदेली फाग गीत: फागोत्सव या होलिकोत्सव के रूप में मशहूर इस त्यौहार के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है लेकिन बुंदेली फागों के बारे में कुछ ऐसी बातें भी हैं जिन्हें लेकर काफी भ्रम हैं। बुंदेली फाग गीत वास्तव में बुंदेलखंड के लोकगीत हैं जो वसंतोत्सव, होलिकोत्सव, फागोत्सव या रंगोत्सव पर गाए जाते थे लेकिन धीरे धीरे इन गीतों में व्यापकता आती गई और अन् अवसरों पर भी इनका उपयोग होने लगा। माना जाता है कि फाग गीत दो तरह के होते हैं- प्राचीन और अर्वाचीन। प्राचीन फागों की तुलना में अर्वाचीन फागों ने अधिक व्यापकता पाई। इनमें ईसुरी (ईश्वरीप्रसाद) की चौकडि़या शैली और छन्दयाऊ फागें मुख् हैं। इन्हें किसी भी समय गाया जा सकता है। फागों में सभी विषय और रसों से ओत-प्रोत रचनाएं शामिल हैं। ईसुरी ने सभी रसों से पूर्ण फागें गाई हैं। उनकी यह रचना इसका प्रमाण है।

फागें
सुन आए सुख होई, देई देवता मोई।
इन फागन पै फाग आवै, कइयक करो अनोई।
भौंर
बखन को उगलत रैगओ, कली-कली में गोई।
बस
भर ईसुरी एक बचो ना, सब रस लओ निंचोई।

फाग शब् की उत्पत्ति संस्कृत में फल एक धातु है जो निष्पत्ति (फलना, सफल होना) परिणाम निकालना और पकना आदि अर्थों में प्रयुक् होती है। पाणिनी के फल पाटिनमि मनि जनां गुक् पटि नाकिधतश् सूत्र के फल् + गुक् से फल्गु शब् बनता है। यही फल्गु कालांतर में बदलते हुए फल्गु-फग्गु-फागु-फाग बन गया। संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में फल्गु शब् के कई अर्थ दिए गए हैं: असार, अल्, गया की एक नदी, उत्सव, होली का त्यौहार और वसंतोत्सव। फाग शब् आजकल वसंतोत्सव, तथा रंग गुलाल की क्रीड़ा के रूप में प्रचलित हो गया है। यह क्रीड़ा यज्ञान् स्नान और विवाहादि के अवसर पर देखी जाती है। इन अवसरों पर गाए जाने वाले गीत भी इसी नाम से जाने जाते हैं। वास्तव में भारतीय संस्कृति में हर उत्सव में गीत गाए जाते हैं और उसी के नाम से प्रसिद्ध होते हैं। फाग शब् भी उत्सव और गीत दोनों रूप में प्रचलित है।
बुंदेलखंड में रंगो का पर्व होली मनाने की परंपरा बहुत पुरानी है। बुंदेलखंड के फाग गीत भी बहुत लोकप्रिय है। एक समय था जब बुंदेलखंड की रियासतों में राजे-रजावड़े राज करते थे। उस समय होलिकोत्‍सव और वसंतोत्‍सव को राजसी ठाट-बाट के साथ मनाया जाता था। अब न रियासतें रहीं न रजवाड़े लेकिन बदले हुए रूप में होलिकोत्‍सव आज भी मनाया जाता है। होली का नाम सुनते ही बरबस बुंदेली फागों का स्‍मरण हो आता है लेकिन फागों के बारे में यह भ्रांति है कि ये सिर्फ होली या रंगोत्‍सव के लिए हैं। वास्‍तव में बुंदेली फाग गीत बुंदेलखंड के लो गीतों की एक विधा है और इसका दायरा बहुत व्‍यापक है। होली के साथ ही बुंदेली फाग कमोबेश हर अवसर पर गाई जाती हैं। इस पर विस्‍तार से बाद में चर्चा करेंगे लेकिन पहले बुंदेलखंड की होली पर एक नजर डालें।बुंदेलखंड के होलिकोत्‍सव को समझने के लिए गोस्‍वामी तुलसीदास के गीतावली में वर्णित होलिकोत्‍सव को देखना होगा: खेलत बसंत राजाधिराज। देखत नभ कौतुक सुर समाज। सोहे सखा अनुज रघुनाथ साथ। झोलिन्‍ह अबीर पिचकारी हाथ। बाजहिं मृदंग, डफ ताल बेनु। छिरके सुगंध भरे मलय रेनुं। लिए छरी बेंत सोंधे विभाग। चांचहि, झूमक कहें सरस राग। नूपुर किंकिनि धुनिं अति सोहाइ। ललना-गन जेहि तेहि धरइ धाइ। लांचन आजहु फागुआ मनाइ। छांड़हि नचाइ, हा-हा कराइ। चढ़े खरनि विदूसक स्‍वांग साजि। करें कुट निपट गई लाज भाजि। नर-नारि परस्‍पर गारि देत। सुनि हंसत राम भइन समेत। बरसत प्रसून वर-विवुध वृंद जय-जय दिनकर कुमुकचंद। ब्रह्मादि प्रसंसत अवध-वास। गावत कल कीरत तुलसिदास। होली की तैयारी- डांड़ दंड की जगह अब ऐसे लट्ठे गाड़े जाते हैं और लकड़ी इकट्ठी की जाती है। फाल्‍गुन शुक्‍ल अष्‍टमी से पूर्णिमा तक आठ दिन होलिकाष्‍टक के रूप में मशहूर हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी इन दिनों घर-घर मंजीर की आकृति के गोबर के बल्‍ले बनाए जाते हैं। एक पताकायुक्‍त होली का डांड़ (दंड) गाड़ दिया जाता है और उसके चारों ओर झाड़-झखाड़ व कंडे आदि इकट्ठे किए जाते हैं। जो लोग इस काम में भाग लेते हैं उन्‍हें हुरयारे कहा जाता है। होली मस्‍ती और उल्‍लास का त्‍यौहार है। हुरियारे कभी कभी लोगों की चारपाई आदि जैसे सामान भी होली के हवाले कर देते हैं, जिसे लेकर कभी कभी लड़ाई झगड़े भी हो जाते हैं। बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि होली में वास्‍तव में खेतों के वे झाड़ झंखाड़ ही डाले जाने चाहिए जो खेतों की फसल कटने के बाद अनुपयुक्‍त बच जाते हैं और आगे आ रही ग्रीष्‍म ऋतु की तेज हवाओं के साथ उड़कर किसानों के मार्ग को और दुर्गुम बनाते हैं। आठ दिन तक होली जोड़ने की परंपरा भी यही है कि झाड़ झंखाड़ खोज-खोज कर इकट्ठे किए जाएं। समय के साथ परंपराओं में भी बदलाव होते हैं और होली इसका अपवाद नहीं है। ये पुरानी परंपराएं अब गांवों में भी बहुत कम दिखाई देती हैं। शहरों में तो खैर इनका प्रचलन बंद हुए बरसों हो गए। शहरों में तो अब एक-दो दिन के अंदर होली का इंतजाम किया जाता है। लकड़ी, कंडे, झाड़-झंखाड़ खोजने की परंपरा नहीं रही। अब तो उत्‍साही नौजवान चंदा इकट्ठा करते हैं और सब कुछ उसी से कर लिया जाता है। पुराने समय में बुजुर्ग बताते हैं कि पुरोहितों द्वारा बताए गए समय में फाग मंडलियां फाग गीत गाते हुए निकलतीं तो लगता मानो ये गीत इस उत्‍सव के मंगलाचरण हैं: कोऊ ऐसो न जग में होए महादेव शिव दानी। चंदन, चाउर बेल की पाती, अज्झा-धतूरे के फूल। चढ़ाये जल पानी। कोऊ ऐसौ… इत बहै गंगा उत बहै जमुना, प्रागराज में तिरवेनी। भागीरथ गंगा लै आये, तरन लगो संसार- जटन में उरझानी। कोऊ ऐसौ… इन्‍हीं के साथ लोगों का समूह भी पूजा की थालियां लेकर जाता। नियत समय पर घी, गुड़, बताशे, हरिद्रा, अक्षत आदि से प्रहलाद की बुआ की पूजा कर होली जलाई जाती। इसके बाद लोग होली की अग्नि लाकर अपने अपने घरों में बल्‍लों की होली जलाते। होली के डांड़ (दंड) के पतन, उस पर लगी पताका और होली के धुंए से वायु परीक्षा की जाती थी। इससे राजा और प्रजा के भविष्‍य का अनुमान लगाया जाता था। ज्‍यातिष शास्‍त्र के अनुसार इस समय पूर्व, उत्तर और पश्चिम की वायु शुभ और दक्षिण की वायु अशुभ मानी जाती थी। देखें: पूर्वे वायु होलिकाया: प्रजा: भूपालयो: सुखम्। पलायनं च दर्भिक्षं दक्षिणे जायते ध्रुवम्।। पश्चिमे तृण सम्‍पत्ति: उत्तरे धन्‍य-संभव:। यदि खे च शिखा वृद्धि, दुर्गम् राग्‍योSपि संक्षयेत।। होलिका दहन के अगले दिन रंग-गुलाल खेलना और ढपला बजाकर घूमती फगवारों या हुरयारों की टोलियों की धमाचौकड़ी तो आज भी देखी जा सकती है। बुंदेलखंड में कुछ स्‍थानों पर पुराने समय में एक अन्‍य प्रथा भी प्रचलित थी। इसे गुड़ की पारी (बड़ी डली) लूटना कहा जाता था। बाद में यह प्राय: समाप्‍त हो गई। एक ऊंचे लट्ठे को मैदान में गाड़ कर उसके ऊपर एक पारी बांध दी जाती थी। पुरुष उस पारी को उतारने का प्रयास करता था। जैसे ही पुरुष उस लट्ठे पर चढ़ते तो वहां मौजूद स्त्रियां उस पर लाठियों से प्रहार कर उसे रोकने का प्रयास करतीं। इसके बावजूद पुरुष चोटों को सहते हुए तेजी से ऊपर चढ़ते और लाठी के प्रहार की सीमा से बाहर होते ही पारी लेकर उतर आते। बाद में विजयी पुरुष उस पारी को स्त्रियों में ही बांट देते थे। बुंदेलखंड में होलिका दहन के दूसरे दिन पूर्वाह्न में धुलेंडी या कीच गिलाव और अपराह्न में रंगों की फाग होती थी। गांवों में आज भी द्वितीया और पंचमी के दिन भी रंगों से फाग खेली जाती है। शहरों में तो अब होली से ज्‍यादा पंचमी पर रंग खेलने का प्रचलन है। हालांकि इसमें अब पहले सा उत्‍साह नहीं रहा। अब तो खैर गांवों में भी वह सब कुछ पहंचने लगा है जो शहरों में मिलता है। लेकिन एक समय था जब गांवों में टेसू के फूलों का रंग ही होली खेलने के लिए इस्‍तेमाल किया जाता था। पुराने समय में गांव-गांव में फगुवारों की टोलियां द्वार-द्वार जाती थीं। इनमें से एक गायकों की टोली होती थी और दूसरी फाग खेलने वालों की। गीतावली के होलिकोत्‍सव में लोचन आजहिं फगवा मनाइ की जो चर्चा की गई है वह प्रथा आज भी मौजूद है। बुंदेली फाग गीत: फागोत्‍सव या होलिकोत्‍सव के रूप में मशहूर इस त्‍यौहार के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है लेकिन बुंदेली फागों के बारे में कुछ ऐसी बातें भी हैं जिन्‍हें लेकर काफी भ्रम हैं। बुंदेली फाग गीत वास्‍तव में बुंदेलखंड के लोकगीत हैं जो वसंतोत्‍सव, होलिकोत्‍सव, फागोत्‍सव या रंगोत्‍सव पर गाए जाते थे लेकिन धीरे धीरे इन गीतों में व्‍यापकता आती गई और अन्‍य अवसरों पर भी इनका उपयोग होने लगा। माना जाता है कि फाग गीत दो तरह के होते हैं- प्राचीन और अर्वाचीन। प्राचीन फागों की तुलना में अर्वाचीन फागों ने अधिक व्‍यापकता पाई। इनमें ईसुरी (ईश्‍वरीप्रसाद) की चौकडि़या शैली और छन्‍दयाऊ फागें मुख्‍य हैं। इन्‍हें किसी भी समय गाया जा सकता है। फागों में सभी विषय और रसों से ओत-प्रोत रचनाएं शामिल हैं। ईसुरी ने सभी रसों से पूर्ण फागें गाई हैं। उनकी यह रचना इसका प्रमाण है। फागें सुन आए सुख होई, देई देवता मोई। इन फागन पै फाग न आवै, कइयक करो अनोई। भौंर बखन को उगलत रैगओ, कली-कली में गोई। बस भर ईसुरी एक बचो ना, सब रस लओ निंचोई। फाग शब्‍द की उत्‍पत्ति संस्‍कृत में फल एक धातु है जो निष्‍पत्ति (फलना, सफल होना) परिणाम निकालना और पकना आदि अर्थों में प्रयुक्‍त होती है। पाणिनी के फल पाटिनमि मनि जनां गुक् पटि नाकिधतश्‍च सूत्र के फल् + गुक् से फल्‍गु शब्‍द बनता है। यही फल्‍गु कालांतर में बदलते हुए फल्‍गु-फग्‍गु-फागु-फाग बन गया। संस्‍कृत शब्‍दार्थ कौस्‍तुभ में फल्‍गु शब्‍द के कई अर्थ दिए गए हैं: असार, अल्‍प, गया की एक नदी, उत्‍सव, होली का त्‍यौहार और वसंतोत्‍सव। फाग शब्‍द आजकल वसंतोत्‍सव, तथा रंग गुलाल की क्रीड़ा के रूप में प्रचलित हो गया है। यह क्रीड़ा यज्ञान्‍त स्‍नान और विवाहादि के अवसर पर देखी जाती है। इन अवसरों पर गाए जाने वाले गीत भी इसी नाम से जाने जाते हैं। वास्‍तव में भारतीय संस्‍कृति में हर उत्‍सव में गीत गाए जाते हैं और उसी के नाम से प्रसिद्ध होते हैं। फाग शब्‍द भी उत्‍सव और गीत दोनों रूप में प्रचलित है।

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