बुन्देलखंड का हर निवासी बुन्देला है


बुन्देलखंड में महाराजा छत्रसाल की शासन सत्ता इस प्रकार थी :–


इस जमना उत नर्मदा,इस चम्बल उत टौंस ।

छत्रसाल सौं लरन की,रही न काहू हौंस ।।







सोमवार, 30 जून 2014

रानी लक्ष्मीबाई विकास परिषद द्वारा बुंदेलखंड विकास सम्मलेन और गौरव सम्मान समारोह

 बुंदेलखंड विकास परिषद दवारा  आयोजित  
माननिय केन्दीय जल संसाधन, नदी और  गंगा  मंत्री सुश्री उमा भारती  के नेतृत्व  में वीरांगना  महारानी लक्ष्मीबाई बलिदान स्मृति  पर रानी लक्ष्मीबाई विकास परिषद द्वारा  बुंदेलखंड विकास सम्मलेन और गौरव सम्मान समारोह  में आप सभी सादर आमंत्रित है । 
1 जूलई को 5:00 PM बजे वीरांगना  महारानी लक्ष्मीबाई बलिदान स्मृति  के तत्वधान में आजाद भवन  ITO के पास नई  दिल्ली में महारानी लक्ष्मी बाई के गुणों को आत्मसात करने का संकल्प लिया जाएगा और    बुंदेलखंड के चहुमुखी  विकास के लिए मसौदा तैयार किया जाएगा  जिसमे पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रदीप जैन, अनवार जे. हलीम समजसेवी रघु  ठाकुर,राजशेखर व्यास उप महानिदेशक-दूरदर्शन,डॉ पी.के. अग्रवाल पूर्व  आई.ए.एस,अनिल बरेजा सोलर एनर्जी  एक्सपर्ट,जय किशन दास अध्यक्ष यमुना रक्षक  दल,अनिल कुमार त्रिपाठी  प्रिंसिपल बलवन्तराय मेहता विद्या भवन आदि। 




वीरांगना  महारानी लक्ष्मीबाई बलिदान स्मृति  पर २०१४ के लिए वीरांगना  महारानी  लक्ष्मी बाई  गौरव सम्मान के लिए आध्यात्म के क्षेत्र में आचार्य प्रवर स्वामी ए.एस. विज्ञानाचार्य जी महाराज,चिकित्सा के क्षेत्र में डॉ सौमित्र  रावत वरिष्ठ सर्जन,डॉ विनोद निखरा,डॉ  राकेश त्रिपाठी,कर्नल डॉ विपिन चतुर्वेदी,डॉ भरत सिंह  शिक्षा के क्षेत्र में रीता जैन,प्रोफ. किशन कुमार,साहित्य के क्षेत्र में  विवेक मिश्रा,विवेक गौतम एवं कमांडोर विजय शंकर बबेल जी  का सम्मान किया जाएगा । 
संचालक मंडल में श्री प्रदीप जैन,आदिश कुमार जैन,राजेन्द्र पस्तोर,विनय खरे,विराग गुप्ता,प्रशांत गुप्ता,गोविन्द प्रसाद अरजरिया आदि मौजूद होंगे ।  


https://twitter.com/Hardyal_Kushwah


संयोजक बुंदेली साहित्य कला अकादमी के अध्यक्ष हरदयाल कुशवाहा होंगे ।
कार्यक्रम की अध्यक्षता अशोक कु. रिछारिया राष्ट्रीय अध्यक्ष (बुंदेलखंड विकास परिषद ) करेंगे । 

Cont. कवि हरदयाल कुशवाहा +91 9911197344,9990807740

मंगलवार, 3 जून 2014

बुंदेलखंड संस्कृति


                                     




वैदिक तथा पुराणयुगीन बुन्देली समाज और संस्कृति
 
यदि यह मान लिया जाये कि द्रविड़ों के उन्नत काल में आर्यों का आक्रमण या आगमन हुआ था और इसी मे वृत्र ने इन्द्र का प्रतिरोध किया था तो निश्चित है इसमें ही वृत्रासुर हुआ होगा और उसके कारण इन्द्र का ब्रह्म हत्या का मार्गी बनाया जाना औचित्य पूर्ण सिद्ध होता है। द्विवेदी जी ने कहा है कि आर्यों ने भारत में बसने   से पूर्व यहाँ के तत्कालीन निवासियों की उस सभ्यता का ध्वंस किया जिसे सिंधु घाटी की सभ्यता का नाम दिया गया है जिसके प्रमुख केन्द्र मोहनजोदाड़ो और हड़प्पा माने गए हैं।
       वैदिक संस्कृति सार्वदेशिक मानी जाती है। उस समय में बुंदेलखंड की कल्पना यमुना और नर्मदा के बीच के क्षेत्र से की जाती है जिस पर नागों और असुरों का ही आधिपत्य था। पौराणिक बुंदेलखंड को समझने के लिए एफ० आई० पार्जिटर के मत को मानना समीचीन होगा। उनके मतानुसार मूल पुराणों की रचना इसी काल में हुई जब वैदिक वाङ्मय ने अंतिम रुप धारण किया।
       त्रेतायुग तक विन्ध्य पृष्ठ में ॠषियों का वास हो गया था। वाल्मीकि स्वयं मध्यप्रदेश के थे। दशरथि राम इनके समकालीन थे। परशुराम के पश्चात् कातवीर्य अर्जुन के पौत्र तालजंघ के समय में हैदयों का उत्कर्ष फिर हुआ। तालजंघ के कई पुत्रों में से वितिहोत्र और कुंडिकेर विन्ध्याचल में (वर्तमान बुंदेलखंड में) फैली पर्वतमाला में रहै। श्री एन० एल० डे के मतानुसाल इस समय चेदि राज्य में सागर के समकालीन राजा विदर्भ के पुत्र कौशिक ने राज्य किया।
       वैदिक तथा उपनिशद युग में धर्म, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं साहित्यिक दृष्टि से विकास हुआ। धर्म के क्षेत्र में इन्द्र, वरुण, सविता, अग्नि आदि अनेक देवताओं की स्तुति हुई। सभी देवों को समान स्तर पर माना गया। यज्ञों का आयोजन हुआ। यज्ञों में क्रमश: कर्म काण्ड का प्राधान्य आया। इसी समय प्राग्रवैदिक तथा आर्य धर्म साधना का समन्वय हुआ। आगे चलकर शिव, स्कन्द और यज्ञों की पूजा ने वैदिक धर्मों में मान्यता प्राप्त की तथा इसका कारण यह था कि नेतृत्व दोनों धाराओं का एक ही ब्राह्मण वर्ग में था।
       वैदिक काल के प्रारंभ में राज्य के संगठन की इकाई ग्राम था जिसमें अनेक कुल होते थे। वर्ण व्यवस्था का प्राधान्य हुआ। विभिन्न ॠषियों ने वैदिक संहिताओं की रचना की जिन्हें ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद कहा गया। उनके अतिरिक्त ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, श्रौत एवं गृह सूत्र वैदिक साहित्य में तता वेदांगों में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निवस्त, छन्दस् और ज्योतिष की रचनायें सामने आई। मूर्तिकला के संदर्भ में पं० द्विवेदी का मत समीचीन है कि वैदिक धर्म में अनन्तर विकास होने पर अमूर्त देवताओं का स्थान मूर्तिमान शिव, विष्णु आदि द्वारा ग्रहण किये जाने पर यूथ-स्तम्भें, यज्ञशालाओं के खम्भों दीवारों और वेदिकाओं पर इनकी मूर्तियों के पूर्व रुप इस काल के अन्तिम भाग में बनने लगे होंगे और लोक कर्म के यक्ष, नाग, कूर्म, मकर, वृष आदि भी सुविधाजनक वाहन, अलंकरण और मुख्य देवता की भाँति अपने युग की प्रवृतियों के अनुरुप निर्मित अराधना स्थलों में मूर्तिकला के अभिप्राय बने होंगे। धातुओं का प्रयोग और कृषि शिकार ही उनका जीवन संबल था। आर्यों के आगमन से उनकी संस्कृति, धर्म, सामाजिक स्थिती में अंतर आया, वे समन्वय में ही लगे रहे। आर्यों से उनमें कठोर जाति व्यवस्था का सूत्रपात हुआ। उनके देवता शिव, स्कन्द, कृष्ण आदि को व्यापक मान्यता मिली। बस्तियों का निर्माण, कलात्मक उन्नति आदि के पुन: कार्य हुए। वैदिक युग में सामाजिक जीवन के संबंध में दो मत हैं। एक में आदर्श रुप बनाया गया है और दूसरे को समाजशास्र के आधार पर कहा गया है। समाजशास्र के आधार पर प्राचीन वैदिक काल में जहां उदात्त का युग था, उत्तर वैदिक काल विस्तार विपल्व और अन्तर्द्वेन्द पूर्ण हुआ। कबीलाई संस्कृति क विकास जनपद में हुआ। जनपद भी अधिक समय तक न चले कालांतर में वे "राज्य' में बदले। ब्राह्मणों और क्षत्रियों के संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि उपनिषदों के माध्यम से भारतीय दर्शन के ग्रंथ सामने आये। सामाजिक जीवन में विवाह, उत्तराधिकारी, धार्मिक, अनुष्ठानों, संस्कारों आदि के निश्चित विधान थे। वैदिक युग के बाद परस्री से, नियोग द्वारा संतति उत्पन्न करने जैसे नियमों को त्याग दिया गया। वैदिक युग में समाज में वर्ण व्यवस्था ने जोर पकड़। कर्मकाण्ड का प्राधान्य हुआ। इस समय बुंदेलखंड में पुलिन्द, दण्डक और दुछा शबर, विन्ध्यमालीय, कुरमी, निषाद, कोल आदि ऐसी जातियों का प्राधान्य था जो अभि तक आर्यों के साथ पूर्णत: समायोजित न हो पाये थे।
 

     गुफा -युग

प्राचिन ग्रंथों से मालूम होता है कि रामायण-काल तक बुंदेलखंड आर्येतर पुलिंदों, निषादों, शबरों, रामठों, दाँगियों आदि आदिवासियों का निवास-स्थान रहा है । इस कारण इस प्रदेश के लोकधर्म में इन वन्य जातियों की धार्मिक मान्यताओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है । गुफा-युग में धर्म सामुदायिक था । उनके देवता आध्यात्मिक न होकर जागतिक थे । उनकी अर्चा का उद्देश्य बाधाओं और विपत्तियों से रक्षा और सांसारिक सुखों की प्राप्ति था । उपयोगिता ही देवत्व की कसौटी थी । इस कारण फल, माँस, जल, शरण, रोशनी देले वाले वृक्ष, पशु, नदी-सरोवर, गिरि, अग्नि आदि का अर्चन शुरु हुआ । साथ ही भय की भावना से सर्पादि जैसे घातक जंतुओं का भी । चमत्कारी और प्रभावशाली प्राकृतिक शक्तियों के प्रति आस्था भी जरुरी थी । सभी लोकदेवों की पूजा मानसिक थी । आधिकतर उन्हें, फल और माँस की भेंट दी जाती थी, जिसकी लीक बलि की रुढि में परिवर्तित हुई थी । आग जलाकर उसके चारों ओर घेरा बनाकर कुछ गाना और नाचना मानो अग्नि को प्रसन्न करना था । इसी तरह गुफाओं में अपने मन का कोई चित्र या आकृति बनाकर उसे रक्षा का प्रतीक मान लेना एवं उस पर पूरे समुदाय का विश्वास होना अंचल के देवता की पहली कल्पना थी । कई गुफाओं में ऐसे विचित्र मानवी चित्र मिले हैं, जो देवत्व की प्राचीनतम अवधारणा के प्रमाण लगते हैं ।
Top of the Page
कृषि-युग में नदी घाटी सभ्यता का उद्भव हुआ था । मैदान में पहले पशुपालन, फिर कृषि-कर्म की अवस्था आई और तदनुरुप लोक और लोकधर्म का विकास हुआ । पशुओं की रक्षा और अधिक लाभप्राप्ति की लोकभावना ने पशुपति और पशुओं की पूजा को जन्म दिया । इसी तरह कृषि-कर्म की उपयोगिता बढ़ाने और फसलों को अनेक विपत्तियों से बचाने के लिए जल, नदी तथा यक्षादि को देवत्व मिला । दोनों में प्रजनन और उत्पत्ति की वृद्धि हेतु मातृशक्ति की पूजा अनिवार्य हो गई । इस जनपद की आदिम जातियाँ-शबर और पुलिंद देवीभक्त थीं, जिसका प्रमाण प्राचीन ग्रंथों में मिलता है और जिससे स्पष्ट है कि मातृमूर्ति की पूजा यहाँ प्रधान थी ।-१ उसके साथ भूदेवी की पूजा भी प्रचलित हुई, जो आज तक भियाँ रानी या भुइयाँ रानी के रुप में वर्तमान है । एक कच्चे या पक्के चबूतरे पर एक छोटी-सी मढिया जिसमें कोई मूर्ति नहीं होती, भूदेवी का सबसे पुराना प्रतीक है, जो इस जनपद में आज भी अवशिष्ट है । जातकों और पुराणों में वर्णित भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र और जादू-टोना भी इसी युग की देन हैं । इनसे धर्म के आनुष्ठानिक रुप के विकास का भी पता चलता है, लेकिन प्रामाणिक साक्ष्यों के अभाव में कुछ भी कहना उचित नहीं है ।

बुंदेलखंड गंधर्वों और नागों का संघर्ष

नर्मदा संबंधी एक उपाख्यान है, जिसमें गंधर्वों और नागों के संघर्ष का वर्णन है । पहले गंधर्वों ने मुनि कश्यप के छ: लाख पुत्रों को लेकर नागों को पराजित किया था और उनके मूल्यवान् रत्न छीनकर उनके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया था । बाद में नागों ने नर्मदा से पुरुकुत्स की सहायता लेने के लिए कहा, इस कारण नर्मदा पुरुकुत्स को लेकर पाताल गयी और पुरुकुत्स ने गंधर्वों का संहार किया । इस पर नागों ने नर्मदा को आशीर्वाद दिया कि 'जो कोई नर्मदा का स्मरण करेगा, उसे सर्पों से भय नहीं रहेगा ।' यह उपाख्यान चाहे ऐतिहासिक हो और नर्मदा के माध्यम से गंधर्व और नाग जातियों के संबंधों पर प्रकाश डालता हो, चाहे कल्पित हो और नर्मदा की महिमा स्थापित करने के लिए लिखा गया हो, लेकिन इतना निश्चित है कि इस कथा से एक लोकविश्वास का जन्म हो गया । लोगों का विश्वास है कि प्रात: और रात्रि में नर्मदा मैया को नमस्कार करने और यह प्रार्थना करने से कि 'हे नर्मदा ! मुझे सर्पों के विष से बचाओ', सर्पों का विष व्याप्त नहीं होता । होता यह है कि कथा विस्मृत हो जाती है, विश्वास अमर रहता है

बुंदेलखंड एक सांस्कृतिक परिचय

                         गिरि गहर नद - निर्झर मय लता गुल्म तरु कुंज भूमि है,
                               तपोभूमि साहित्य कलायुत वीर भूमि बुंदेल भूमि है ।
एक समय था, जब बुंदेलखंड का विस्तृत प्रदेश एक शासन-सूत्र में बंध कर उत्तर में यमुना से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक और पश्चिम में चम्बल से लोकर पूर्व में टां... तक फैला हुआ था, किंतु इन नदियों द्वारा घिरे हुए भाग में सीमांत की ओर के क्षेत्र बघेली गोंडा, जयपुरी, मालवी, निमाड़ी, छत्तीसगढ़ी और गोंडी बोलियों का दबाव प्रभाव वाले हैं । बुंदेली बोली की दृष्टि से जो भाग वास्तविक बुंदेलखंड है, उसका आज कुछ भाग उत्तर-प्रदेश और शेष मध्यप्रदेश के कुछ भागां में विस्तार पाये हैं । इस प्रकार झांसी, हमीरपुर, बांदा, जालौन, सरीला, ग्वालियर, ईसागढ़, विदिशा, भोपाल, टीकमगढ़, छत्तरपुर, पन्ना, चरखारी, समथर, दतिया, विजावर, अ्जयगढ़ तथा सागर, दमोह, जबलपुर और होशंगाबाद इसमें सम्मिलित किये जाते हैं। सवनी का कुछ भाग भी इसके अंतर्गत लिया जाता है। राजनितिक सीमाओं की दृष्टि से विभिन्न ऐतिहासिक युगों में राज्यों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों को लेकर विभिन्न दिशाओं में बढ़ाया-घटाया जा सकता है।
पुराकाल से अब तक बुंदेलखंड अनेक शासकों के अधीन रहा है इसलिए उसके नाम समय-समय पर बदलते रहे हैं - जैसे - पुराणकाल मे यह "चेदि' जनपद के नाम से अभिहित हुआ है तो साथ-साथ इसको दस नदियों वाला "दशार्ण' प्रदेश भी कहा गया है। विन्धय पर्वत की श्रेणियों से आवेष्टित होने के कारण इसे "विंधयभूमि' या "विंधय निलय', "विंधय पार्श्व' आदि संज्ञाऐं भी मिलती हैं। "चेदि' का दूसरा नाम "डाहल' माना जाता है दशार्ण और "चेदि' अलग-अलग जनपद भी हैं। चेदी और त्रिपुरी का सम्बंध भी महत्वपूर्ण माना जाता है। बुंदेलखंड की दक्षिणी सीमा रेवा (नर्मदा) के द्वारा बनती है इसलिऐ इसे "रेवा का उत्तर प्रदेश' भी माना जाता है। बुंदेलखंड में पुलिन्द जाति और शबरों का अनेक समय तक निवास रहा है इसलिए कतिपय विद्वान इसे "पुलिन्द प्रदेश' अथवा "शबर-क्षेत्र' भी घोषित करते हैं।
बुंदेलखंड राजनैतिक इतिहास में दसवीं शताब्दी के बाद ही अपनी संज्ञा को सार्थक करता है। चंदेली शासन मे यह क्षेत्र "जुझौती' के नाम से जाना जाता था किन्तु जव पंचम् सिंह बुंदेल के वंशजों ने पृथ्वीराज के खंगार सामन्त को कुण्डार में परास्त किया और इस प्रदेश पर अधिकार जमाया, इस भूमि का नाम बुंदेलखंड पड़ा ।
पंचम सिंह यूं तो स्वयं गहरवार थे । वे बुंदेला कब हुं, इस संबंध में अनेक विंवदन्तियाँ हैं । कतिपय विद्वानों का मत है कि यह शब्द विंध्यवासिनी देवी से संबंधित है । पंचम सिंह ने विंध्यवासिनी देवी की आराधना की थी । विंध्यवासिनी देवी का मंदिर विंध्य पर्वत श्रेणियों पर स्थित है, इसलिए कहा जाता है कि पंचम सिंह ने अ्पने नाम के साथ "विंध्येला' जोड़ लिया था । यह विंध्येला शब्द ही बाद में "बुंदेला' रुप में विकसित हो गया और जिस क्षेत्र में पंचम सिंह अथवा उसके वंशजों ने राज्य विस्तार वह बुंदेलखंड कहलाया । टाड के अनुसार ""जसौंदा   नामक गरहवार ने विंध्यवासिनी देवी के सम्मुख एक महायज्ञ करके अपने वंशजो को "बुंदेला' प्रसिद्ध किया और इससे बुंदेलखंड बना ।''
बुंदेलखंड के विभिन्न खंड एक लम्बे समय तक भिन्न-भिन्न शासकों के बंधन मे रहे इसलिए विभिन्न भागों के बुंदेलखंडियों में एकता के बीच किंचित विधिता का आभास मिलता है, फिर भी बुंदेलखंड के विभिन्न भाग मिला कर अपनी प्राकृतिक रचना, जलवायु और भाषा तथा साहित्य रीति-नीति और लोक-व्यवहार मे ऐसा खंड है, जिसका एक विशेष अपनापन है।