बुन्देलखंड का हर निवासी बुन्देला है


बुन्देलखंड में महाराजा छत्रसाल की शासन सत्ता इस प्रकार थी :–


इस जमना उत नर्मदा,इस चम्बल उत टौंस ।

छत्रसाल सौं लरन की,रही न काहू हौंस ।।







बुधवार, 19 जनवरी 2011

Bundelkhand region Songs of freedom By Hardayal Kushwaha

Songs of freedom


Reviewed by M. Rajivlochan
By Pankaj Rag.
Rupa. Pages 212. Rs 395.
1857: The Oral Tradition

 

 The Oral Tradition this book adds an important facet to the studies on the revolt of 1857. Pankaj         Rag collects various folk renditions of the memories of 1857 and gives us a unique picture of how the people of Awadh and central India felt about the events of 1857. Towards this end, he painstakingly collects folk songs to weave a poetic tapestry much akin to that of another famous one found in Bayeux. His effort has been to bring together a large body of hitherto ignored literature that has documented the local traditions of central India, match it with the archival reconstruction of the times and place before us the soul, as it were, of the people.
Rag begins with a detailed discussion of oral traditions and contemporary literature in the context of 1857. Here he recounts in brief the history of the revolt in UP and CP on the basis of the various extant documents and histories of the freedom movement. The more interesting part of his book is the depiction of Rani of Jhansi, the tribals of central India and the taluqdars of Awadh in folk songs.
The Rani of Jhansi, as Rag discovers, was much braver than what Subhadhra Kumari Chauhan depicted her in the famous poem and had been preceded by many others who were strongly opposed to the British. Chauhan herself, Rag tells us, was building upon the tradition of the ‘harbolas’, the local minstrels of the Bundelkhand region. They would roam the countryside and sing the songs of bravery of the people in opposing British rule. Much before the mutiny of 1857, the songs of the harbolas had created an atmosphere of rebellion here. It was not just the Rani of Jhansi who was rebellious in nature. The entire population of Bundelkhand seemed to be against the British presence in their midst. While many hoped to stand against the British, when it came to actual action, most also withdrew into their forts and let the foolhardy fight their battles for freedom. The songsters of Bundelkhand captured such withdrawals, but without labeling it as betrayal; the heroism of the people who fought to drive out the British, however, formed the bulk of their songs.
The most important feature of the songsters’ renditions, Rag tells us, was that they primarily focused on the lives and times of the common people. People of all castes, the songsters of Bundelkhand said, joined hands to drive out the British even when many of the feudal lords of the region preferred loyalty to the colonisers. Lower castes, untouchables, Brahmins and Banias all stood together in their opposition.
Similarly, the tribals of central India too find considerable place in the folk traditions of this period even when they have been almost entirely ignored by professional historians. Rag puts together the lore and recollects the bravery of the Gond tribals in opposing the British. Making good use of the official archives and matching them with the folk traditions, Rag tells us of the efforts by the tribal leaders to create a united front against the British. Such efforts were often undermined by self-servers who foresaw the difficulties in conducting military operations against the modern British forces. Yet, the opponents of the British always managed to collect a large body of common people to help them.
However, all this has been missing from the written histories of the region, since the historians chose to confine their searches to official records. Rag fills this gap admirably by going into the details of folktales and songs of the period that are extant till today to reconstruct the heroism and anti-colonialism that permeated the society of central India. This book comes out as an important corrective to the histories of 1857 written till now.






sorce:Sunday, the Sunday tribune December 12, 2010Sunday, December 12, 2010





2 टिप्‍पणियां:

  1. महुए का कुल और वर्गीकृत कुटुम्भ
    विगत ७५ से १०० वर्षो का कालखंड बुंदेली जनाचल -वांचल लिए विंशक हुआ और विनाशा का विजारोपड हमारी पिछली ३ पीडियो से होता चला आ राहा है , हम ने उन वन-बीज जन सम्पदा को जाने अनजाने नष्ट किया जो बुंदेलखंड की आर्थिक सामाजिक और भौगोलिक धुरी थी, हमारे आज के युवा-नौनिहालों को बुंदेलखंड बाँझ वंजर और सूखे का खंडहर दिखता है.महुआ हां महुआ का पेड कभी सयुक्त परिवार,जाति समृद्धा कुल कुटुम्भ और वर्ग का धोतक था महज कुछ रुपयौ की खातिर काटे और नष्ट किये गए महुआ,कुल्ला,बैर,करोदा,शरीफा,आवला,आचारवा,नीबू अमरुद ही नहीं सागौन,शाल,शीशम,तेदु,जामुन, नीम जैसे फल और जल रोधक वन सम्पदा को किसी दुश्मन की भाती ख़त्म किया,और ख़त्म करते गए वन,जल,और समृद्धा अल्हड़ बुंदेली जीवन शैली को भी
    बुजुर्गो से सुनी महुए के लिए इक किद्वंती याद आती है किसी सयुक्त कुल में महुए के हजारो लाखो पेड हुआ करते थे और समृद्धा कुल कुटुम्भ भी बडा था, मरने से पहले कुलपति ने कुटुमभियो को शिक्षा दीक्षा दी की विपदा पर भी इन बिरखो (पेड़ो) को मत काटना और ना ही नष्ट होने देना कालांतर में कुल का वर्गीकरण हुआ और कुटुमभियो ने विभाजन के साथ ही महुए के हजारो लाखो पेडो को भी वर्गीकृत करना शुरू किया कुल के पहले कुटुम्भी ने कहा मैं महुए के पेडो के फुलो को लूगा, दूसरे कुलीनों ने फल, तीसरे कुटुम्भी ने कहा पत्ते मेरे हुए,चौथे कुलीनों ने प्रतिउत्तर में कहा सूखे लकड़ी हमारी, पाँचवे कुटुम्भी ने पेड़ो के निचे की जमीं मांगी,तो अंत वाले कुल कुटुम्भी ने पूछ की "तुम सब रख लोगे तो हमें का मिले हे भैया हमाओ हक़ कहे खा मारत हो",विभाजन कुटुमभियो ने सम्मेक स्वर में उत्तर दिया," जो बचे सो तुमओ हुए " पहले कुटुम्भी जिसके हाथ मैं महुए के पेडो के फुल आये उसने देशान्तर -कालांतर में उससे आय व्यय व्यापार शुरू किया और खान पान के साथ कुल से कालार,वही सुखाकर भुनने वाला भरभूझा,दूसरा कुलीन फल वाला गुली से तेली, गुलगुच से मिठया, तीसरा कुटुम्भी पत्ते वाला तमोली ,चौथा सूखे लकड़ी वाला कुलीन लकड़हारा,बड़ाई लुहार वना , पाँचवां कुलीन जिसने पेड़ो के निचे की जमीं मांगी थी खेती करते हुये कुर्मी,काछी किसान हुए कुन्तु हम सभी अपने अपने में मस्त-मग्न हो कर अपने इक कुलीन को जाने अनजाने में भूल सो गए, उसी को जिसे जिसे "जो बचे सो तुमओ"उसे जिसके हिस्से में कुछ नहीं मिला था वह कुलीन धीरे-धीरे सभी के हिस्से से अन्यो के साथ मिलकर वहुवाल छलवाल से या पैठ बैठ के पेडो को काटता रहा और काटता ही चला जा रहा है सचमुच हमने सब खो दिया?? क्यों खोया हमें पता है ?? हमने ना ॠषियों का अनुशंधान, आश्रमीयो ज्ञान विज्ञानं माना ,ना कुलपतियो का अनुभव ना कुटुमभियो की शिक्षा दीक्षा ना रीत रिवाज हमने खुद को बढ़ाया और अपनो को ही ठगा हम विन्धयंचल की ऋषी भूमि का कर्ज कब चुकाएंगे महुआ माटी वन जल सम्पदा को कब वचायेगे कब विन्धयंचल को आदि कालीन आनुशंधानो और रणविजय की प्रयोगशाला पर्वतमाला, वैदिक काल के आंगिरा,आत्री,काछीवान के आनुशंधानो की वैधयशाला, वही वेद व्यास,वाल्मिकी ,केशव,तुलसी,ईसरी,मैथली की रची भूमि, ऋषी,विदुषी, रानी सती,अनसुइया,घोषा, सीता,दौपदी,लक्ष्मी,झलकारी और साध्वियों,व्रह्मचारवियो की धरोहरो साझी भूमि को और किरात,काछी,कोल,निषाद,गौड़,भील,शाबर,वनजातिय ही नहीं वनस्पत किन्नर,नाग, गन्धर्व वामन, वनिया,क्षत्रियोँ की समृद्धा विरुदा वाली वाखान वाली जाति जन समूहों की विलुप्त हुई पहिचान को कब वचायेगे । हमारे आज के युवा नौनिहालों को बुंदेलखंड बाँझ वंजर और सूखे का खंडहर के रूप में चित्रित कर के देखते है.महुआ हां महुआ का पेड कभी सयुक्त परिवार, जाति और वर्ग का धोतक था महज कुछ रुपयौ की खातिर काटे और नष्ट किये गए महुआ,कुल्ला,बैर,करोदा,शरीफा,आवला,आचारवा , नीबू अमरुद ही नहीं सागौन, शाल, शीशम,तेदु,जामुन, आम नीम जैसे फल और जल रोधक वन सम्पदा को किसी दुश्मन की भाती ख़त्म किया,और ख़त्म करते गए वन,जल,और समृद्धा अल्हड़ जीवन शैली को भी ऋषी आत्रि आँशुईया के समय में कहते है की बुंदेली भूमि पर भयानक सुखा पड़ा सभी जन-वन वाशी विचलित होने लागे, और विस्थापित हो देशान्तर को जाने लगे, ऋषी ने सापत्नी प्रण लिया की हम वनचलो के लिए गंगा को इस आँचल पर लायेगे ,ऋषी आत्रि, अन्य ॠषियों , आश्रमीयो ,पुलिंद, निषाद शबर, रामठ, दाँगी जैसी यहाँ की अनेक जातियों- जनजातियों के शौर्य, साहस और परिश्रम से कभी पानी के झरनो,कूपों, ताल-तालियों को जोड़ने के साथ साथ ॠषियों के ज्ञान और वन जातियों- जनजातियों के अनुभवों से इस आँचल में कुछ ऐसी औषधिये वनस्पतियो की एक भरी पूरी श्रंखला को खोजा और रोपड़ जिनमे

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  2. महुआ,कुल्ला,बैर,करोदा,शरीफा,आवला,आचारवा,नीम, ,तेदु,जामुन नीबू अमरुद इतयादी को ईजादा किया गया की जो भयावान सूखे की दशा में ज्यादा फले फुले और जिन्हे कच्चा पक्का सुखा के खाया और वनाया जा सके वही जुंडी, कुदावा, शामा, लाठारा,खेती योग्य बीजो की चिन्हित किया, ॠषियों ,आश्रमीयो ,राउत गोंड़, कोल, भील, सहारिया पुलिंद, निषाद शबर, रामठ, दाँगी वन योद्धा जाति- जनजातियों के शोध ज्ञान और अनुभव रंग लाया और मन्दाकिनी की गंग धार और गुप्त गोदावरी( गौड़वाती) का जल चित्रकूट के पर्वमालाओ और हनुमान धरा को छोड़ मन्दाकिनी और गोदावारी गुप्त रूप से जटाशंकर,भीमकुण्ड,कुण्डेश्वर, होते हुए बुंदेलखंड को शश्य शयामला करते हुए प्रकट रूप में महाराष्ट्र औरआंध्र प्रदेश से बहते हुए राजहमुन्द्री शहर के समीप बंगाल की खाड़ी मे जाकर मिली इस भागीरथी प्रयास से जहा एक और जल संकट से छुटकारा मिला वही सबसे अधिक और प्रसिद्ध इस अंचल के फल फूल और खादयन रहा है।भारत के मध्य में आर्य ॠषियों की आश्रमी संस्कृति, रामायण काल में आनुशंधान विज्ञान और प्रयोग की भूमि खूब फली-फूली थी। और यहाँ की वन्य संस्कृति महाभारत काल में भी जस की तस बनी रही ।और वानचलो की जातियों- जनजातियों में बुंदेलखंड के नर्तक, गायक, वादक, चारण, चितेरे, विट, वेश्या, इन्द्रजालिक के अतिरिक्त हाथ के तालों पर नाचने वाले, तैराक, रस्सों पर नाचने वाले, दाँतों से खेल दिखाने वाले, पहलवान, पटेबाज और मदारियों का खेल तमाश दिखाने वाले पूरे बुंदेलखंड में खूब फले फुले

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