बुन्देलखंड का हर निवासी बुन्देला है


बुन्देलखंड में महाराजा छत्रसाल की शासन सत्ता इस प्रकार थी :–


इस जमना उत नर्मदा,इस चम्बल उत टौंस ।

छत्रसाल सौं लरन की,रही न काहू हौंस ।।







मंगलवार, 3 जून 2014

बुंदेलखंड संस्कृति


                                     




वैदिक तथा पुराणयुगीन बुन्देली समाज और संस्कृति
 
यदि यह मान लिया जाये कि द्रविड़ों के उन्नत काल में आर्यों का आक्रमण या आगमन हुआ था और इसी मे वृत्र ने इन्द्र का प्रतिरोध किया था तो निश्चित है इसमें ही वृत्रासुर हुआ होगा और उसके कारण इन्द्र का ब्रह्म हत्या का मार्गी बनाया जाना औचित्य पूर्ण सिद्ध होता है। द्विवेदी जी ने कहा है कि आर्यों ने भारत में बसने   से पूर्व यहाँ के तत्कालीन निवासियों की उस सभ्यता का ध्वंस किया जिसे सिंधु घाटी की सभ्यता का नाम दिया गया है जिसके प्रमुख केन्द्र मोहनजोदाड़ो और हड़प्पा माने गए हैं।
       वैदिक संस्कृति सार्वदेशिक मानी जाती है। उस समय में बुंदेलखंड की कल्पना यमुना और नर्मदा के बीच के क्षेत्र से की जाती है जिस पर नागों और असुरों का ही आधिपत्य था। पौराणिक बुंदेलखंड को समझने के लिए एफ० आई० पार्जिटर के मत को मानना समीचीन होगा। उनके मतानुसार मूल पुराणों की रचना इसी काल में हुई जब वैदिक वाङ्मय ने अंतिम रुप धारण किया।
       त्रेतायुग तक विन्ध्य पृष्ठ में ॠषियों का वास हो गया था। वाल्मीकि स्वयं मध्यप्रदेश के थे। दशरथि राम इनके समकालीन थे। परशुराम के पश्चात् कातवीर्य अर्जुन के पौत्र तालजंघ के समय में हैदयों का उत्कर्ष फिर हुआ। तालजंघ के कई पुत्रों में से वितिहोत्र और कुंडिकेर विन्ध्याचल में (वर्तमान बुंदेलखंड में) फैली पर्वतमाला में रहै। श्री एन० एल० डे के मतानुसाल इस समय चेदि राज्य में सागर के समकालीन राजा विदर्भ के पुत्र कौशिक ने राज्य किया।
       वैदिक तथा उपनिशद युग में धर्म, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं साहित्यिक दृष्टि से विकास हुआ। धर्म के क्षेत्र में इन्द्र, वरुण, सविता, अग्नि आदि अनेक देवताओं की स्तुति हुई। सभी देवों को समान स्तर पर माना गया। यज्ञों का आयोजन हुआ। यज्ञों में क्रमश: कर्म काण्ड का प्राधान्य आया। इसी समय प्राग्रवैदिक तथा आर्य धर्म साधना का समन्वय हुआ। आगे चलकर शिव, स्कन्द और यज्ञों की पूजा ने वैदिक धर्मों में मान्यता प्राप्त की तथा इसका कारण यह था कि नेतृत्व दोनों धाराओं का एक ही ब्राह्मण वर्ग में था।
       वैदिक काल के प्रारंभ में राज्य के संगठन की इकाई ग्राम था जिसमें अनेक कुल होते थे। वर्ण व्यवस्था का प्राधान्य हुआ। विभिन्न ॠषियों ने वैदिक संहिताओं की रचना की जिन्हें ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद कहा गया। उनके अतिरिक्त ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, श्रौत एवं गृह सूत्र वैदिक साहित्य में तता वेदांगों में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निवस्त, छन्दस् और ज्योतिष की रचनायें सामने आई। मूर्तिकला के संदर्भ में पं० द्विवेदी का मत समीचीन है कि वैदिक धर्म में अनन्तर विकास होने पर अमूर्त देवताओं का स्थान मूर्तिमान शिव, विष्णु आदि द्वारा ग्रहण किये जाने पर यूथ-स्तम्भें, यज्ञशालाओं के खम्भों दीवारों और वेदिकाओं पर इनकी मूर्तियों के पूर्व रुप इस काल के अन्तिम भाग में बनने लगे होंगे और लोक कर्म के यक्ष, नाग, कूर्म, मकर, वृष आदि भी सुविधाजनक वाहन, अलंकरण और मुख्य देवता की भाँति अपने युग की प्रवृतियों के अनुरुप निर्मित अराधना स्थलों में मूर्तिकला के अभिप्राय बने होंगे। धातुओं का प्रयोग और कृषि शिकार ही उनका जीवन संबल था। आर्यों के आगमन से उनकी संस्कृति, धर्म, सामाजिक स्थिती में अंतर आया, वे समन्वय में ही लगे रहे। आर्यों से उनमें कठोर जाति व्यवस्था का सूत्रपात हुआ। उनके देवता शिव, स्कन्द, कृष्ण आदि को व्यापक मान्यता मिली। बस्तियों का निर्माण, कलात्मक उन्नति आदि के पुन: कार्य हुए। वैदिक युग में सामाजिक जीवन के संबंध में दो मत हैं। एक में आदर्श रुप बनाया गया है और दूसरे को समाजशास्र के आधार पर कहा गया है। समाजशास्र के आधार पर प्राचीन वैदिक काल में जहां उदात्त का युग था, उत्तर वैदिक काल विस्तार विपल्व और अन्तर्द्वेन्द पूर्ण हुआ। कबीलाई संस्कृति क विकास जनपद में हुआ। जनपद भी अधिक समय तक न चले कालांतर में वे "राज्य' में बदले। ब्राह्मणों और क्षत्रियों के संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि उपनिषदों के माध्यम से भारतीय दर्शन के ग्रंथ सामने आये। सामाजिक जीवन में विवाह, उत्तराधिकारी, धार्मिक, अनुष्ठानों, संस्कारों आदि के निश्चित विधान थे। वैदिक युग के बाद परस्री से, नियोग द्वारा संतति उत्पन्न करने जैसे नियमों को त्याग दिया गया। वैदिक युग में समाज में वर्ण व्यवस्था ने जोर पकड़। कर्मकाण्ड का प्राधान्य हुआ। इस समय बुंदेलखंड में पुलिन्द, दण्डक और दुछा शबर, विन्ध्यमालीय, कुरमी, निषाद, कोल आदि ऐसी जातियों का प्राधान्य था जो अभि तक आर्यों के साथ पूर्णत: समायोजित न हो पाये थे।
 

     गुफा -युग

प्राचिन ग्रंथों से मालूम होता है कि रामायण-काल तक बुंदेलखंड आर्येतर पुलिंदों, निषादों, शबरों, रामठों, दाँगियों आदि आदिवासियों का निवास-स्थान रहा है । इस कारण इस प्रदेश के लोकधर्म में इन वन्य जातियों की धार्मिक मान्यताओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है । गुफा-युग में धर्म सामुदायिक था । उनके देवता आध्यात्मिक न होकर जागतिक थे । उनकी अर्चा का उद्देश्य बाधाओं और विपत्तियों से रक्षा और सांसारिक सुखों की प्राप्ति था । उपयोगिता ही देवत्व की कसौटी थी । इस कारण फल, माँस, जल, शरण, रोशनी देले वाले वृक्ष, पशु, नदी-सरोवर, गिरि, अग्नि आदि का अर्चन शुरु हुआ । साथ ही भय की भावना से सर्पादि जैसे घातक जंतुओं का भी । चमत्कारी और प्रभावशाली प्राकृतिक शक्तियों के प्रति आस्था भी जरुरी थी । सभी लोकदेवों की पूजा मानसिक थी । आधिकतर उन्हें, फल और माँस की भेंट दी जाती थी, जिसकी लीक बलि की रुढि में परिवर्तित हुई थी । आग जलाकर उसके चारों ओर घेरा बनाकर कुछ गाना और नाचना मानो अग्नि को प्रसन्न करना था । इसी तरह गुफाओं में अपने मन का कोई चित्र या आकृति बनाकर उसे रक्षा का प्रतीक मान लेना एवं उस पर पूरे समुदाय का विश्वास होना अंचल के देवता की पहली कल्पना थी । कई गुफाओं में ऐसे विचित्र मानवी चित्र मिले हैं, जो देवत्व की प्राचीनतम अवधारणा के प्रमाण लगते हैं ।
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कृषि-युग में नदी घाटी सभ्यता का उद्भव हुआ था । मैदान में पहले पशुपालन, फिर कृषि-कर्म की अवस्था आई और तदनुरुप लोक और लोकधर्म का विकास हुआ । पशुओं की रक्षा और अधिक लाभप्राप्ति की लोकभावना ने पशुपति और पशुओं की पूजा को जन्म दिया । इसी तरह कृषि-कर्म की उपयोगिता बढ़ाने और फसलों को अनेक विपत्तियों से बचाने के लिए जल, नदी तथा यक्षादि को देवत्व मिला । दोनों में प्रजनन और उत्पत्ति की वृद्धि हेतु मातृशक्ति की पूजा अनिवार्य हो गई । इस जनपद की आदिम जातियाँ-शबर और पुलिंद देवीभक्त थीं, जिसका प्रमाण प्राचीन ग्रंथों में मिलता है और जिससे स्पष्ट है कि मातृमूर्ति की पूजा यहाँ प्रधान थी ।-१ उसके साथ भूदेवी की पूजा भी प्रचलित हुई, जो आज तक भियाँ रानी या भुइयाँ रानी के रुप में वर्तमान है । एक कच्चे या पक्के चबूतरे पर एक छोटी-सी मढिया जिसमें कोई मूर्ति नहीं होती, भूदेवी का सबसे पुराना प्रतीक है, जो इस जनपद में आज भी अवशिष्ट है । जातकों और पुराणों में वर्णित भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र और जादू-टोना भी इसी युग की देन हैं । इनसे धर्म के आनुष्ठानिक रुप के विकास का भी पता चलता है, लेकिन प्रामाणिक साक्ष्यों के अभाव में कुछ भी कहना उचित नहीं है ।

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